चल मेरे दोस्त जरा साथ में जी लेते हैं..
इन ऊँचे पहाड़ों की, संग में थोड़ी दुरी तय कर लेते हैं..
आजाद पंछी की तरह इस गगन में लहराएंगे,
कितना सुन्दर है अपना गॉव ये सबको बतलाएंगे..
मदमस्त होकर घूमेंगे, इन खेत-जंगलों और पहाड़ों में..
गर्मियों में खाएंगे काफल, और बुरांस चखेंगे जाड़ों में.
थक लगेगी हमे अगर तो, इन बांज के पेड़ों की छाऊँ में बैठ जाएंगे.
भूख लगेगी चिंता न कर, माँ के हाथ का बना खाना खाएंगे.
ना जाने बाकी सारे यहाँ रह क्यों नहीं पाते..
सड़कों से मत जाना दोस्त.. इनसे जाने वाले कभी लौटकर नहीं आ पाते.
नदी से नहीं कहेंगे कुछ भी, वो बहुत बहाने सुनाती है..
सुना है शहरों तक जाती है, पर एक संदेशा तक नहीं पहुंचती है.
लाख विनती करी थी हमने नदी से, पर एक न उसने मानी थी.
बोली में नदी होकर शहरों में बदल गई, तेरा दोस्त तो बस एक प्राणी है.
चले गए सब दोस्त छोड़ कर..बस तू ही मेरा सच्चा यार है.
कोई कुछ भी कहे, कुछ भी सोचे.. मुझे तो बस अपने गांव से प्यार है.
धन्यवाद, ये व्यथा लगभग गॉव में बचे हुए सभी बच्चों की है.
गाँव की वयथा को ता्रकिक एवं मारमिक वर्णन । अति सुंदर।