मैं हिमालय यूँ मूक खड़ा
बस देख रहा और चिंतन करता।
नित परिवर्तन की परिभाषा का,
अन्वेषण मैं पल-पल करता।
मर रहे हैं जीव-जंतु मेरे और
मर रही हैं ये नदियां प्यारी।
राज-पाठ और नियम तुम्हारे,
फैसले भी तुम्हारे, जैसे हो तुम जग के स्वामी।
मेरे हर अंश में दिखने लगा
है विध्वंश, मनमानियों का तुम्हारी।
देवी-देवताओं ने चुना था मुझको
और स्वर्ग कहा था राजाओं ने।
मुर्ख, पर्वतों का सम्राट हूँ मैं
और संतुलित करता हूँ ये जग सारा।
पत्थर का हूँ, पर हृदय कठोर नहीं मेरा ,
प्रकृति का एक अमित वरदान हूँ मैं।
तेरे स्वार्थ से मैं खंडित हो रहा
और जंग छिड़ी है आँगन में मेरे।
पछताएगा तू करतूतों से अपनी.
संभल जा, और रोक ले खुद को।
मैं हिमालय यूँ मूक खड़ा..
बस देख रहा और चिंतन करता।