इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे स्वाहा ॥
अर्थ: “सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु ने इस जगत को धारण किया है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अंतरिक्ष और तीसरे द्युलोक में तीन पदों को स्थापित करते है अर्थात वे ही सर्वत्र व्याप्त है।”
सनातन हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार के रूप में पूजे जाते है। “विष्णु” शब्द की उत्पत्ति विस् शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है उपस्थित होना। जो समस्त सृष्टि के कण-कण में उपस्थित है वह परमात्मा “विष्णु” है। उत्तराखंड में सप्त बद्री (मंदिर समूह) भगवान विष्णु को समर्पित प्रमुख मंदिर है। इन सातों मन्दिरों के नाम इस प्रकार है
पौराणिक काल में इन मंदिरों की यात्रा के लिए बद्रीवन से होकर दुर्गम मार्ग तय करना होता था, “बद्री” का अर्थ होता है बेर। इस कारण वश भगवान विष्णु को समर्पित इन मंदिरों के साथ बद्री शब्द का उल्लेख हुआ है। तो आईये जानते है इन मंदिरों से सम्बंधित रोचक कथाओं को।
आदि का अर्थ होता है “शुरुवात” भगवान विष्णु शुरुवाती दौर में इसी स्थान पर पूजे जाते थे। कहा जाता है की आदि बद्री मंदिर सप्त बद्री का प्रथम तिर्थ मंदिर है। मान्यता है की भगवान विष्णु यहाँ सतयुग, त्रेता युग और द्वापर युग तक रहे तत्पश्चात वे बदरीनाथ में बद्रीविशाल के नाम से पूजे जाने लगे।
एक कथा और है आदि बद्री से सम्बंधित की ब्रह्मा के पुत्र धर्म के दक्षप्रजापति की कन्या श्रीमूर्ति से दो पुत्र हुए। एक पुत्र का नाम “नर” और दूसरे का नाम “नारायण” रखा गया। आदि बद्री वही स्थान है जहाँ ऋषि नारायण ने तपस्या की थी।
महाभारत के योद्धा महाराज पाण्डु एक महान धनुर्धर थे एक बार वे अपनी पत्नी कुंती और माद्री के साथ आखेट पर गए और उन्होंने प्रेम में मगन एक मृग जोड़े पर अपना तीर चला दिया। मृग जोड़े के वेश में वे ऋषि और उनकी पत्नी थे। तब मृग वेशधारी ऋषि ने अपनी अंतिम क्षणों में महाराज पाण्डु को शाप दिया की अगर वे अपनी पत्नी संग प्रेम करेंगे तो उसी क्षण उनकी भी मृत्यु हो जायेगी। तत्पश्चात महाराज पाण्डु ने शाप से मुक्ति पाने के लिए यहाँ भागवान विष्णु की तपस्या करी पर, अपने आप को मृग वेशधारी ऋषि के शाप से नहीं बचा पाये। इस स्थान के बारे में एक और कथा सुनने को मिलती है की अर्जुन ने इसी स्थान पर भगवान विष्णु की तपस्या करी थी और अर्जुन के तप को भंग करने के लिए इंद्र ने परी को भेजा था। स्वर्ग के राजा इंद्र फिर भी अर्जुन का तप भंग नहीं कर पाये। इस बात से प्रसन्न हो कर इंद्र ने अर्जुन को दर्शन दिया और भेंट स्वरुप भगवान विष्णु की मूर्ति उन्हें दी। भगवान विष्णु की वह ही मूर्ति आज भी योगध्यान बद्री में स्थापित है।
भविष्य बद्री वह स्थान है जहाँ भगवान बद्री विशाल भविष्य में पूजे जायेंगे। कहाँ जाता है की जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में रखी मूर्ति जब खंडित हो जायेगी तो बद्रीनाथ का मंदिर नहीं रहेगा और भगवान बद्रीविशाल, भविष्य बद्री मंदिर में स्थान्तरित हो जायेंगे। भविष्य बद्री मंदिर आने वाले समय में भगवान बद्री विशाल का पूजन स्थान होगा।
ध्यान बद्री मंदिर से जुडी कथा कहती है की इस स्थान पर महाभारत के योद्धा पुरुजन्य ने तपस्या करी थी। पाण्डव राजा पुरूजन्य के वंशज थे। यहाँ भगवान विष्णु की काले पत्थर से बनी चतुर्भुज ध्यान मुद्रा में बनी मूर्ति स्थापित है। भगवान् विष्णु की ध्यान मुद्रा में स्थापित मूर्ति के कारण ही इस स्थान का नाम ध्यान बद्री प्रसिद्ध हुआ है।
वृद्ध बद्री से सम्बंधित कथा हमें बताती है की इस स्थान पर देवऋषि नारद ने भगवान विष्णु की तपस्या की थी। देवऋषि नारद की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने देवऋषि नारद को वृद्ध रूप में दर्शन दिया था। इसी कारणवश यह स्थान वृद्ध बद्री नाम से प्रसिद्ध हुआ।
आदि गुरु शंकराचार्य ने इसी सर्वप्रथम इसी स्थान (जोशीमठ) पर आये थे। उन्होंने इसी स्थान पर तपस्या कर ज्ञान प्राप्त किया था। पौराणिक काल में जोशीमठ को ज्योतिर्मठ कहा जाता था। जोशीमठ शब्द ज्योतिर्मठ का ही अपभ्रंश है। भगवान विष्णु ने उन्हें नरसिंह अवतार के शांत रूप में दर्शन दिए थे, इसलिए इस स्थान को नरसिंह बद्री कहा जाता है।
यहाँ के विषय में एक कथा और प्रचलित है कहते है की यहाँ स्थापित भगवान नरसिंह की मूर्ति का एक हाथ पतला होता जा रहा है। जिन दिन भगवान नरसिंह की बांह टूट जायेगी उस दिन बद्रीनाथ धाम का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। तत्पश्चात कलयुग समाप्त हो जायेगा और सतयुग का पुनः आगमन होगा और भगवान बद्रीविशाल भविष्य बद्री में स्थापित हो जायेंगे।
बद्रीविशाल से जुडी कथा कुछ इस प्रकार है कहते है, एक बार भगवान महादेव अपनी अर्धांगिनी पार्वती के साथ हिमालय पर विचरण कर रहे थे तो अचानक मार्ग पर आगे बढ़ते हुए उन्हें किसी बालक का रुदन सुनाई पड़ा। महादेव, पार्वती के साथ उस बालक के समीप जा पहुंचे, रुदन करते बालक को देख पार्वती से रहा नहीं गया और उन्होंने उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया, जिस से उस बालक का रुदन बंद हो गया।
अचानक बालक की जगह भगवान विष्णु प्रकट हुए। उन्होंने भगवान महादेव और माता पार्वती से निवेदन किया की वे इस क्षेत्र में उन्हें भी स्थान प्रदान करें। फल स्वरुप भगवान महादेव और माता पार्वती ने भगवान विष्णु को क्षेत्र का कुछ भाग दे दिया जो बद्रिकाश्रम क्षेत्र के नाम से विख्यात हुआ। एक और कथा है बद्रीविशाल से सम्बंधित जो बताती है की भगवान विष्णु बद्रिकाश्रम क्षेत्र में घोर तपस्या में लीन थे, तो हिमपात के कारण भगवान विष्णु बर्फ से ढकने लगे उन्हें हिमपात से बचाने के लिए देवी लक्ष्मी ने उनके समीप ही बद्री वृक्ष का रूप ले लिया और भगवान विष्णु पर पड़ने वाले हिमपात को देवी लक्ष्मी अपने ऊपर सहती रही। जब भगवान विष्णु का तप समाप्त हुआ तो देवी लक्ष्मी की सेवा और समर्पण से प्रसन्न होकर उन्होंने उन्हें वरदान दिया के आज से उन्हें देवी लक्ष्मी के साथ इसी स्थान पर पूजा जायेगा चूँकि देवी लक्ष्मी ने बद्री वृक्ष का रूप लिया था तो इसी कारणवश यहाँ भगवान विष्णु बद्रीविशाल नाम से प्रसिद्ध हुए।
उत्तराखंड में स्थापित भगवान विष्णु के ये मंदिर यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं के अंदर आत्मीय ज्ञान की ऊर्जा का संचार कर देते है। यहाँ से सम्बंधित कथाएं पौराणिक काल में ऋषियों, राजाओ और साधरण मानव द्वारा किये गए तप और वैदिक अनुष्ठानो से हमारा परिचय तो करवाती ही है साथ ही हमें ये भी बताती है की निरंतर साधना, एकाग्रता और तप से परमात्मा को अनुभव किया जा सकता है। आशा है आप सभी सप्त बद्री के मन्दिरो की यात्रा पर एक बार उत्तराखंड अवश्य आएंगे। जय बद्री विशाल।
Thanks for such a nice article on badri temples. Jai ho Bhagwan Badri Vishal. Jai ho bhagwan Badrinath.
दुर्लभ जानकारी के लिये बहुत बहुत आभार आपका🙌🙏