5 June 2016 | Dehradun
आज पूरा विश्व पर्यावरण दिवस मना रहा है किन्तु वर्तमान में ज्यादातर लोग इसकी परवाह नहीं करते। ” Lancet study 2012″ के अनुसार पुरे विश्व में 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारतीय शहर हैं. यह एक बहुत बड़ा चिंता का विषय है क्योंकि पर्यावरण सीधे तौर पर हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा है और इसके जिम्मेदार भी हम लोग ही हैं। आज दूषित फल सब्जियां खा कर कैंसर जैसी बीमारियां पनप रहीं है, वहीँ प्रकृति के लिए आज सभी जीव-जन्तुवों को छोड़ कर इंसान किसी कैंसर से कम नहीं।
बात करे उत्तराखंड की तो यह पर्यावरण की नजर से एक बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र है. उत्तराखंड का 86 % भू-भाग पहाड़ी है जिसमे 65% वन हैं और उत्तरी हिमालयी भाग बेहद ठंडे ग्लेशियरों से ढका हुआ है जहाँ से गंगा-यमुना समेत कई नदियां निकलती हैं जो पुरे उत्तर भारत की जीवन दायनी नदियां हैं। वनस्पति और जीव विज्ञानं की नजर से देखें तो उत्तराखंड किसी जन्नत से कम नहीं. विलुप्त होने की कगार पर खड़े कुछ जीव और दुर्लभ पौधों की प्रजातियां भी यहाँ देखि जा सकती हैं और फूलों की घाटी तो अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं।
पर आज विकास के बढ़ते दबाव के साथ साथ आगे बढ़ने की होड़ में हम पर्यावरण को भूलते जा रहे है। अगर आप नेशनल हाईवे 58 जो की ऋषिकेश से होता हुआ माणा पास तक जाता है से गुजरें तो आप सड़क किनारे व नदी किनारे जमे प्लास्टिक व कांच की बोतलों, पन्नियों, से लेके कूड़े के ढेर देख सकतें हैं. कोई भी कहीं भी कूड़ा फैला रहा है। नदियों, आसपास के लोगों व भूस्खलन तथा पर्यावरण के बारे में सोचे बिना डैम, होटल, व अवैध खनन का काम उत्तराखंड में जोरों पर हैं।
मीडिया न होने के बाद भी हमारे पूर्वजों ने चिपको आंदोलन दे कर पूरी दुनियां में एक मिसाल कायम की जिसे 1987 में “Right Livelihood Award”(International Award) से नवाजा गया. ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से कई समय पहले से ही वे पर्यावरण के प्रति न सिर्फ जागरूक थे साथ ही यह भी जानते थे की एक पेड़ की कीमत पर्यावरण के लिए क्या मायने रखती है शायद इसीलिए उन्होंने पेड़ काटने आए लकड़हारों के सामने पेड़ों से चिपककर उनकी रक्षा की।
हाल ही में उत्तराखंड के जंगलों को भीषण आग का सामना करना पड़ा. हर साल उत्तराखंड के जंगलों में आग लगती है पर जब शासन अपनी जिम्मेदारियों पर खरा न उतर रहा हो और लकड़ी माफिया अपनी सीमाएं लाँघ रहे हों तो जाहिर है आग का इतने बड़े पैमाने पर फैलना कोई आचार्य का विषय नहीं. वाद-विवाद और एक दूसरे को कसूरवार ठहराने का सिलसिला शायद यूँ ही चलता रहेगा पर इन सब में शायद हम भी एक पेड़ चुपचाप लगाना भूल जाएंगे.
आज पर्यावरण की मार पूरा देश झेल रहा है जहाँ एक किसान बारिश न होने के कारण आत्महत्या कर रहा है वहीँ दूसरी ओर अत्यधिक बारिश व ओलावृष्टि के कारण पूरी फसलें बर्बाद हो रही हैं, जरूरत है विकास की दौड़ में अँधा होने के बजाय पर्यावरण को बाचने और अधिक पेड़ लगाने की. अगर हम में से हर व्यक्ति एक साल में एक पेड़ भी लगाए तो भारत की कुल जनसँख्या के हिसाब से एक साल में दो अरब पेड़ तो हो जाएंगे। आज हम सब को जरूरत है अपने आप में “गौरा देवी” बनने की।
Hat’s off to those such brave people.